Friday, December 18, 2009

परीक्षा और प्रार्थना... (अज्ञात)

विशेष नोट : यह मेरे बचपन की सबसे मीठी यादों में से एक है... इसे और परीक्षा से ही जुड़ी एक अन्य कविता को मैंने सिर्फ एक-एक बार सुनकर याद किया था, और आज भी बिना रुके टाइप करता चला गया...

हे प्रभो, इस दास की, इतनी विनय सुन लीजिए,
मार ठोकर नाव मेरी, पार कर ही दीजिए...

मैं नहीं डरता प्रलय से, मौत या तूफ़ान से,
कांपती है रूह मेरी, बस सदा इम्तिहान से...

पाठ पढ़ना, याद करना, याद करके सोचना,
सोचकर लिखना उसे, लिखकर उसे फिर घोटना...

टांय टा टा टांय टा टा, रोज़ रटता हूं प्रभो,
पुस्तकों के रात-दिन, पन्ने उलटता हूं प्रभो...

भाग्य में लेकिन न जाने, कौन-सा अभिशाप है,
रात को रटता, सुबह मैदान मिलता साफ़ है...

पी गई इंग्लिश, हमारी खोपड़ी के खून को,
मैं समझ पाया नहीं, इस बेतुके मजमून को...

अक्ल अलजेब्रा हमारी, जाएगा जड़ से पचा,
तीन में से छः गए तो और बाकी क्या बचा...

नाश हो इतिहास का, सन के समंदर बह गए,
मर गए वे लोग, रोने के लिए हम रह गए...

शाहजहां, बाबर, हुमायूं, और अकबर आप थे,
कौन थे बेटे न जाने, कौन किसके बाप थे...

भूगोल में था प्रश्न आया, गोल है कैसे धरा,
और मैंने एक क्षण में, लिख दिया उत्तर खरा...

गोल है पूरी-कचौरी, और पापड़ गोल है,
गोल रसगुल्ला, जलेबी गोल, लड्डू गोल है...

गोलगप्पा गोल है, मुंह भी हमारा गोल है,
इसीलिए हे मास्टरजी, यह धरा भी गोल है...

झूम उठे मास्टरजी, इस अनोखे ज्ञान पे,
और उन्होंने पेपर पर लिख दिया यह शान से...

ठीक है बेटा, हमारी लेखनी भी गोल है,
गोल है दवात, नम्बर भी तुम्हारा गोल है...

राम-रामौ, राम-रामौ, हाय प्यारी संस्कृतम्,
तुम न आईं, मर गया मैं, रच्छ-गच्छ कचूमरम्...

अंड-वंडम्, चंड-खंडम्, रुण्ड-मुण्ड चराचरम्,
चट्ट रोटी, पट्ट दालम्, चट्ट-पट्ट सफाचटम्...

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