Friday, December 18, 2009

आराम करो... (गोपालप्रसाद व्यास)

विशेष नोट : एक और हास्य कविता प्रस्तुत है, जो मुझे बहुत पसंद है...

एक मित्र मिले, बोले, लाला, तुम किस चक्की का खाते हो,
इस डेढ़ छंटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो...,
क्या रक्खा मांस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो,
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो...
हम बोले, रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो,
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो...

आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है,
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है...
आराम शब्द में 'राम' छिपा, जो भव-बंधन को खोता है,
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है...
इसलिए तुम्हें समझाता हूं, मेरे अनुभव से काम करो,
यह जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो...

यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो,
अपने घर में बैठे-बैठे, बस लंबी-लंबी बात करो...
करने-धरने में क्या रक्खा, जो रक्खा बात बनाने में,
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में...
तुम मुझसे पूछो, बतलाऊं, है मज़ा, मूर्ख कहलाने में,
जीवन-जागृति में क्या रक्खा, जो रक्खा है सो जाने में...

मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूं,
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूं...
दीए जलने के पहले ही, घर में आ जाया करता हूं,
जो मिलता है, खा लेता हूं, चुपके सो जाया करता हूं...
मेरी गीता में लिखा हुआ, सच्चे योगी जो होते हैं,
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं...

अदवायन खिंची खाट में जो, पड़ते ही आनंद आता है,
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊंचा उठ जाता है...
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सिर के नीचे आता है,
तो सच कहता हूं इस सिर में, इंजन जैसा लग जाता है...
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूं, बुद्धि भी फक-फक करती है,
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है...

मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूं,
मैं पड़ा खाट पर बूटों को, ऊंटों की उपमा देता हूं...
मैं खटरागी हूं, मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं,
छत की कड़ियां गिनते-गिनते, छंदों के बंध टूटते हैं...
मैं इसीलिए तो कहता हूं, मेरे अनुभव से काम करो,
यह खाट बिछा लो आंगन में, लेटो, बैठो, आराम करो...

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